शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

सुपरबग और लांसेट

साइंस पत्रिका दि लांसेट ने अब जाकर अपने यहां प्रकाशित उस शोध रिपोर्ट के लिए माफी मांगी है, जिसमें यह दावा किया गया था कि स्वास्थ के लिए खतरनाक सुपरबग नाम का बैक्टीरिया हिंदुस्तान में पैदा हुआ है और यह एंजाइम सुपरबग पूरी दुनिया में फैल सकता है। पत्रिका के संपादक डॉ. रिचर्ड हॉर्टन ने हाल ही में एक कार्यक्रम के दौरान अपनी गलती को स्वीकारते हुए कहा, यह सुपरबग हिंदुस्तान में नहीं जन्मा था और इसका नाम नई दिल्ली के नाम पर रखना एक बड़ी भूल थी। यानी लांसेट की सारी रिपोर्ट बेबुनियाद थी। तथ्यों से खिलवाड़ कर पश्चिमी मुल्कों में पैदा हुए सुपरबग को जानबूझकर नई दिल्ली से जोड़ा गया और उसकी इस साजिश में वे बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियां भी शामिल थीं, जिन्होंने अपने निजी फायदे के लिए अफवाहों को हवा देकर गोया कि उस वक्त पूरे मुल्क में हंगामा खड़ा किया। और तो और रिपोर्ट में इस सुपरबग का नाम बकायदा नई दिल्ली के नाम पर न्यू डेल्ही मेटालो बेटालैक्टामेस-1 रखा गया। और यह प्रचारित किया गया कि इस वायरस पर कोई एंटीबॉयोटिक कारगर नहीं है। लांसेट में छपे अध्यन में कहा गया था कि एनडीएम-1 सभी तरह की एंटीबायोटिक दवाओं के खिलाफ प्रतिरोधक जीवाणु विकसित कर लेता है। इन दवाओ में शक्तिशाली कार्बापेनम जैसी दवा भी शामिल है, जो मरीज पर बेअसर साबित होती है। रपट में कहा गया कि इसका पहला संक्रमित मरीज दिल्ली से इलाज कर स्वीडन लौटा था। लांसेट की यह विवादास्पद रिपोर्ट हालांकि उस वक्त भी जांच के कठघरे में थी। हिंदुस्तानी वैज्ञानिकों ने इस रिपोर्ट पर अपने ऐतराज दर्ज कराए तो संसद में भी इस रिपोर्ट पर हंगामा हुआ, लेकिन फिर भी रिपोर्ट को सही ठहराया जाता रहा। इसके पक्ष में तमाम दलीलें पेश की जाती रहीं। अब जबकि इस रिपोर्ट पर से झूठ का पर्दा उठ गया है और सच सामने निकल कर आ गया है तो पता चलता है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने निजी फायदे के लिए किस तरह से साजिशों का दुश्चक्र रचती हैं। अफवाहों का बाजार गर्म कर अपने हित साधती हैं। सच बात तो यह है कि अगस्त में लांसेट में छपी इस रिपोर्ट को एक बहुराष्ट्रीय दवा कंपनी ने ही प्रायोजित किया था, जिससे पूरी दुनिया में एनडीएम-1 का बवाल शुरू हुआ। कंपनी की मंशा साफ थी, इस वायरस का हौवा खड़ा कर मेडिकल टूरिस्टों को हिंदुस्तान आने से रोकना। कंपनी की इस साजिश में कई पश्चिमी मुल्क भी शमिल थे। हिंदुस्तान में बढ़ती स्वास्थ्य पर्यटन की संभावनाओं को नुकसान पहुंचाने के लिए इन मुल्कों के डॉक्टरों ने यह नापाक मंसूबा बनाया। गोया कि ग्रीस, इजराइल, अमेरिका, ब्रिटेन और दीगर यूरोपीय मुल्कों में पाए जाने वाले सुपरबग को हिंदुस्तान के मत्थे मढ़ते हुए रिपोर्ट में यह दलील दी गई कि इंग्लैंड में सुपरबग के जिन 37 मामलों का पता चला है, दरअसल वे मरीज हैं, जिन्होंने कॉस्मेटिक सर्जरी, कैंसर के इलाज और प्रत्यारोपण के लिए हिंदुस्तान का दौरा किया। यानी विशुद्ध रूप से देखा जाए तो यह पूरा मामला व्यावसायिक हितों का है। करोड़ों-अरबों रुपये के हो चुके मेडिकल बाजार पर एकाधिकार की होड़ का है। बीते कुछ सालों में हमारा मुल्क चिकित्सा पर्यटन के क्षेत्र में एक वैश्विक ताकत के रूप में उभरा है। हर साल करीब 11 लाख मेडिकल टूरिस्ट हिंदुस्तान आते हैं और यह आंकड़ा दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। आधुनिक चिकित्सा पद्धति के अलावा हमारी प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति भी विलायतियों पर जादू कर रही है। पसमंजर यह है कि मुल्क के 3 हजार हॉस्पिटल और 7 लाख 3 हजार प्रेक्टिशनर इस काम में दिन-रात जुटे हैं। एक दशक पहले तक जिस जटिल सर्जरी के लिए दुनिया अमेरिका या इंग्लैंड दौड़ती थी, उसने अब आहिस्ता-आहिस्ता हिंदुस्तान का रुख कर दिया है। हमारे आला दर्जे के हॉस्पिटलों ने माहौल को पूरी तरह हिंदुस्तान के हक में मोड़ दिया है। हमारे यहां आने वाले ज्यादातर मरीज मध्य-पूर्व एशिया और अफ्रीका से होते हैं, जहां चिकित्सा सहूलियतें बेहद कम हैं। इतना ही नहीं, अब तो हमारे यहां अमेरिकी, ब्रिटिश और जर्मन मरीजों का आना भी बढ़ा है। दरअसल, पश्चिमी मुल्कों में हेल्थ इंश्योरेंस के बगैर इलाज बेहद महंगा है। लिहाजा, प्लांड ट्रीटमेंट के लिए उनकी पहली पसंद हिंदुस्तान होती है। यही नहीं, अमेरिका की वेलपॉइंट, कंपैनियन और ब्लू क्रॉस तथा ब्रिटेन की व्यूपा, पैसेफिक प्राइम जैसी इंश्योरेंस कंपनियां कम इलाज खर्चे को देखकर अपने पैनल में हिंदुस्तानी हॉस्पिटलों को शामिल करती जा रही हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के हालिया स्वास्थ सुधार स्वास्थ सेक्टर में कितना बदलाव लाएंगे, यह तो अभी समय के गर्भ में है, लेकिन फिलवक्त तो इन इंश्योरेंस कंपनियों को हिंदुस्तान ही सुहा रहा है। यानी आइंदा सालों में हिंदुस्तान में अमेरिकी और ब्रिटिश मरीजों की संख्या और भी बढ़ेगी। बूमिंग मेडिकल टूरिज्म इन इंडिया रिपोर्ट 2009 कहती है कि साल 2012 में मेडिकल टूरिज्म के क्षेत्र में हिंदुस्तान की हिस्सेदारी 2.4 फीसदी होगी। और यह कारोबार सालाना 27 फीसदी के हिसाब से बढ़ेगा। हमारे मुल्क के अस्पताल अपना विस्तार इतना कर चुके हैं कि एशिया-अफ्रीका में कई अस्पतालों को या तो उन्होंने खरीद लिया हैं या उनका उनमें निवेश है। कुल मिलाकर यह सारी बाते हैं, जो आज-कल पश्चिमी मुल्कों को बैचेन कर रही हैं। यह सिलसिला यों ही आगे बढ़ा तो मेडिकल का बहुत बड़ा बाजार पश्चिम के हाथ से निकल जाएगा। और यही वह डर था, जिसके चलते पश्चिमी मुल्कों ने मंसूबाबंद तरीके से अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ पत्रिका दि लांसेट से मिलकर यह खतरनाक चाल चली। सुपरबग नाम के बैक्टीरिया को न सिर्फ हिंदुस्तान से जोड़ा, बल्कि उसे बदनाम करने की भी नाकाम कोशिश की। अब जबकि इस साजिश का पर्दाफाश हो गया है तो लांसेट माफी मांगकर अपने गुनाहों पर पर्दा डाल रही है। लेकिन इस माफी पर ही हिंदुस्तानी हुकूमत को चुप नहीं बैठ जाना चाहिए। मुल्क की छवि को दागदार करने की इस ओछी हरकत के इल्जाम में लांसेट पर जल्द से जल्द कानूनी कार्रवाई की तैयारी हो।

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