मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

शत्रु और मित्र

भय क्या है? शत्रु कौन है? इसका प्रेम से क्या संबन्ध है? यह एक उदाहरण से समझा जा सकता है। अमावस की अंधेरी रात्रि थी। एक व्यक्ति किसी की हत्या करने के लिए उसके घर में घुसा। चारों ओर कोई भी नहीं था, लेकिन उसके भीतर बहुत भय था। सब ओर सन्नाटा था, किंतु उसके भीतर बहुत कोलाहल और अशांति थी। वह भयभीत था। उसने कांपते हाथों से द्वार खोला। उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि द्वार भीतर से बंद नहीं था। बस अटका ही था। लेकिन यह क्या? द्वार खोलते ही उसने देखा कि एक मजबूत और खूंखार आदमी बंदूक लिए सामने खड़ा है। संभवत: पहरेदार था। लौटने का कोई उपाय नहीं। मृत्यु सामने थी। विचार का भी तो समय नहीं था। आत्मरक्षा के लिए उसने गोली दाग दी। एक क्षण में ही सब हो गया। गोली की आवाज से सारा भवन गूंज उठा और गोली से कोई चीज चूर-चूर होकर बिखर गई।

यह क्या? गोली चलाने वाला व्यक्ति हैरान रह गया। सामने तो कोई भी नहीं था। गोली का धुआं था और चूर-चूर हो गया एक दर्पण था।

हमारे जीवन में भी यही होता हुआ दिखाई पड़ता है। आत्मरक्षा के खयाल में हम दर्पणों से ही जूझ पड़ते हैं। भय हमारे भीतर है, इसलिए बाहर शत्रु दिखाई पड़ने लगते हैं। मृत्यु हमारे भीतर है, इसलिए बाहर मारने वाला दिखाई पड़ने लगता है। सवाल यह है कि क्या दर्पणों के फोड़ने से शत्रु समाप्त हो सकते हैं? शत्रु मित्रता में समाप्त होता है। प्रेम के अतिरिक्त और सब पराजय है।

ओशो

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