मंगलवार, 17 जून 2014

भारत के संवैधानिक ढांचे के अंतर्गत पर्यावरण संरक्षण

भारत का संविधान निष्क्रीय नहीं बल्कि जीवंत एवं सक्रिय दस्तावेज है जो समय के साथ विकसित होता रहा है।पर्यावरण संरक्षण को लेकर संविधान में विशेष प्रावधान संविधान की सदा विकसित होने वाली प्रवृति और जमीन संबंधी मौलिक कानून के बढ़ने की संभावनाओं का ही परिणाम है। हमारे संविधान की प्रस्तावना समाज के सामाजवादी तरीके और प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा सुनिश्चि करती है।जीने के बेहतर मानक और प्रदूषणरहित वातावरण संविधान के भीतर अंतर्निहित है। पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 के अनुसार पर्यावरण में जल, हवा और जमीन और अंतरसंबंध जिसमें हवा समाहित हो, जल-जमीन और मानव, अन्य जीवित चीजें, पेड़-पौधे, सूक्ष्म जीवजंतु और संपत्ति आदि समाहित हैं।

भारतीय संविधान में मौलिक कर्तव्यों के तहत हर नागरिक से अपेक्षा की जाती है कि वे पर्यावरण को सुरक्षित रखने में योगदान देंगे। अनुच्छेद 51 A (g) कहता है कि जंगल, तालाब, नदियां, वन्यजीव सहित सभी तरह की प्राकृतिक पर्यावरण संबंधित चीजों की रक्षा करना व उनको बढ़ावा देना हर भारतीय का कर्तव्य होगा। साथ ही प्रत्येक नागरिक को सभी सजीवों के प्रित करुणा रखनी होगी।

भारतीय संविधान के अंतर्गत मूल सिद्धांतों एक कल्याणकारी राज्य निर्माण के लिए काम करते हैं। स्वस्थ पर्यावरण भी कल्याणकारी राज्य का ही एक तत्व है। अनुच्छेद 47 कहता है कि लोगों के जीवन स्तर को सुधारना, उन्हें भरपूर पोषण मुहैया कराना और सार्वजनिक स्वास्थ्य की वृद्धि के लिए काम करना राज्य के प्राथमिक कर्तव्यों में शामिल हैं। सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार के तहत पर्यावरण संरक्षण और उसमें सुधार भी शामिल हैं क्योंकि इसके बगैर सार्वजनिक स्वास्थ्य को सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है। अनुच्छेद 48 कृषि एवं जीव संगठनों के संरक्षण की बात करता है। यह अनुच्छेद राज्यों को निर्देश देता है कि वे कृषि व जीवों से जुड़ों धंधों को आधुनिक व वैज्ञानिक तरीके से संगठित करने के लिए जरूरी कदम उठाएं। विशेषतौर पर, राज्यों को जीव-जन्तुओं की प्रजातियों को संरक्षित करना चाहिए और गाय, बछड़ों, भेड़-बकरी व अन्य जानवरों की हत्या पर रोक लगानी चाहिए। संविधान का अनुच्छेद48-A कहता है कि राज्य पर्यावरण संरक्षण व उसको बढ़ावा देने का काम करेंगे और देशभर में जंगलों व वन्य जीवों को को की सुरक्षा के लिए काम करेंगे।

प्रत्येक व्यक्ति के विकास के लिए सबसे जरूरी मौलिक अधिकारों की गारंटी भारत का संविधान भाग-के तहत देता है। पर्यावरण के अधिकार के बिना व्यक्ति का विकास भी संभव नहीं है। अनुच्छेद 21, 14 और 19 को पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रयोग में लाया जा चुका है।

संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार कानून द्वारा स्थापित बाध्यताओं को छोड़कर किसी भी व्यक्ति को जीवन जीने और व्यक्तिगत आजादी से वंचित नहीं रखा जाएगा। मेनका गांधी बनाम भारत सरकार (AIR 1978 SC 597) संबंधी मुकद्दमें में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद अनुच्छेद 21 की समय समय पर उदारवादी तरीके से व्याख्या की जा चुकी है। अनुच्छेद 21 जीवन जीने का मौलिक अधिकार भी देता है, इसमें पर्यावरण का अधिकार, बीमारियों व संक्रमण के खतरे से मुक्ति का अधिकार अंतर्निहित हैं। स्वस्थ वातावरण का अधिकार प्रतिष्ठा से मानव जीवन जीने के अधिकार की महत्वपूर्ण विशेषता है। संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत स्वस्थ वातावरण में जीवन जीने के अधिकार को पहली बार उस समय मान्यता दी गई थी, जब रूरल लिटिगेसन एंड एंटाइटलमेंट केंद्र बनाम राज्य, AIR 1988 SC 2187 (देहरादून खदान केस के रूप में प्रसिद्धकेस सामने आया था।  यह भारत में अपनी तरह का पहला मामला था, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 के तहत पर्यावरण व पर्यावरण संतुलन संबंधी मुद्दों को ध्यान में रखते हुए इस मामले में खनन (गैरकानूनी खनन ) को रोकने के निर्देश दिए थे। वहीं एमसी मेहता बनाम भारतीय संघ, AIR 1987 SC 1086 के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रदूषण रहित वातावरण में जीवन जीने के अधिकार को भारतीय संविधान के अनु्छेद 21 के अंतर्गत जीवन जीने के मौलिक अधिकार के अंग के रूप में माना था।

बहुत अधिक शोर-शराबा भी समाज में प्रदूषण पैदा करता है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19 (1) a व अनुच्छेद 21 प्रत्येक नागरिक को बेहतर वातावरण और शांतिपूर्ण जीवन जीने का अधिकार देता है। पीए जैकब बनाम कोट्टायम पुलिस अधीक्षक, AIR 1993 ker 1, के मामले में केरला उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि भारतीय संविधान में अनु्च्छेद 19 (1) (a) के तहत दी गई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किसी भी नागरिक को तेज आवाज में लाउड स्पीकर व अन्य शोर-शराबा करने वाले उपकरण आदि बजाने की इजाजत नहीं देता है। इस प्रकार अब शोर-शराबे, लाउड स्पीकर आदि से होने वाले ध्वनि प्रदूषण को अनु्च्छेद 19 (1) (a) के तहत नियंत्रित किया जा सकता है।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19 (1) (g) प्रत्येक नागरिक को अपनी पसंद के अनुसार किसी भी तरह का व्यवसाय, काम-धंधा आदि करने का अधिकार देता है। लेकिन इसमें कुछ प्रतिबंध भी हैं। अर्थात् कोई भी नागरिक ऐसा कोई भी काम नहीं कर सकता, जिससे समाज व लोगों के स्वास्थ्य पर कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़े। पर्यावरण संरक्षण संविधान के इस अनुच्छेद में अंतर्निहित है। कोवरजी बी भरुचा बनाम आबकारी आयुक्त, अजमेर (1954, SC 220) के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि जहां कहीं भी पर्यावरण संरक्षण व व्यवसाय करने के अधिकार के बीच कोई विरोध होगा तो कोर्ट को पर्यावरण संबंधी हितों और व्यवसाय व काम धंधा चुनने संबंधी अधिकार के बीच संतुलन बनाकर किसी निर्णय पर पहुंचना होगा।

भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 और  226 के अंतर्गत जनहित याचिका पर्यावरण संबंधी याचिकाओं की धारा का ही परिणाम है । देहरादून में लाइमस्टोन खदान को बंद कराना (देहरादून खदान केस AIR 1985 SC 652)दिल्ली में क्लोरिन प्लांट में रक्षकों को लगवाना (एमसी मेहता बनाम भारतीय संघ, AIR 1988 SC 1037) आदि वो प्रमुख पर्यावरण संबंधी मामले हैं, जिनमें सर्वोच्च न्यायालय ने अभूतपूर्व और जनहित में निर्णय सुनाएं हैं। वेल्लोर नागरिक कल्याण फोरम बनाम भारतीय संघ (1996) 5 एससीसी 647 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि पर्यावरण संरक्षण व वातावरण को शुद्ध रखने के लिए पूर्व सावधानियां रखकर ही विकास की राह पर आगे बढ़ पाना संभव है।

स्थानीय व ग्रामीण स्तर पर मृदा संरक्षण, जल प्रबंधन, जंगलों की सुरक्षा और पर्यावरण की रक्षा व इसको बढ़ावा देने के लिए पंचायतों को भी मजबूत बनाया जा चुका है।

पर्यावरण की रक्षा हमारे सांस्कृतिक मूल्यों व परंपराओं का ही अंग है। अथर्ववेद में कहा भी गया है कि मनुष्य का स्वर्ग यहीं पृथ्वी पर है। यह जीवित संसार ही सभी मनुष्यों के लिए सबसे प्यारा स्थान है। यह प्रकृति की उदारता का ही आशीर्वाद है कि हम पृथ्वी पर बेहतर सोच और जज्‍बे के साथ जी रहे हैं। पृथ्वी ही हमारा स्वर्ग है और इसकी रक्षा करना हमारा कर्तव्य है। भारत के संविधान में भी प्रकृति के संरक्षण और रक्षा का ढांचा समाहित है, जिसके बिना जीवन का आनंद नहीं उठाया जा सकता है। पर्यावरण संरक्षण के प्रति लोगों की सहभागिता बढ़ाने, पर्यावरण जागरूकता, पर्यावरण संबंधी शिक्षा का विकास करने व लोगों को पर्यावरण के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए पर्यावरण की रक्षा से जुड़े संवैधानिक प्रावधानों का ज्ञान लोगों को होना बेहद जरूरी है। यह आज की जरूरत भी है।

शुक्रवार, 2 मई 2014

चुनावी राज‍नीति में आतंकवाद और हम


लोकतंत्र में आम चुनाव एक ऐसा अवसर होता है जब यह अपेक्षा की जाती है कि सत्ता पक्ष द्वारा उसके कार्यकाल में किए गए कार्यों का विश्लेषण किया जाएगा। स्वयं सत्ता पक्ष अपनी उपलब्धियाँ गिनवाएगा। विपक्षी दल उसकी नाकामियों और नीतियों पर सवाल उठाएँगे। सभी दल देश और जनता की भलाई के लिए अपनी योजनाओं कार्यक्रमों की घोषणा करेंगे। जनहित के मुद्दों पर सकारात्मक बहस होगी। समाज के वंचित, पीडि़त और शोषित वर्गों को अपनी आवाज (आम तौर पर) गूँगे, बहरे और अंधे कानों और आँखों तक पहुँचाने में मदद मिलेगी, क्योंकि अक्सर सत्ता के नशे पूँजीतियों और कारपोरेट घरानों की चकाचैंध में राजनैतिक दलों के नेता न सुन पाते हैं और न देख पाते हैं। लेकिन यह एक कड़ुवी सच्चाई जिसका अनुभव हम इससे पहले के आम चुनावों में भी कर चुके हैं कि चुनावी सरगरमियाँ जैसे-जैसे तेज होती जाती हैं इन जनहित के मुद्दों को बड़ी धूर्तबाजी से हमारे राजनेता हाशिए पर पहुँचा देते हैं। फिर वही वंशवाद, व्यक्तिवाद आस्था, को भय और लालच के हथियार का प्रयोग करते हुए पूँजीपतियों और कारपोट घरानों के हजारो हजार करोड़ रूपयों के चुनावी निवेश से भोली भाली जनता को परोसा जाता रहा है। वही वातावरण इस चुनाव में निर्मित किया जाता हुआ महसूस हो रहा है। पहले वंशवाद और व्यक्तिवाद के साथ आस्था को ज्यादा महत्व दिया जाता था। भय का हथियार आमतौर पर सेकुलर माने जाने वाले दल मुसलमानों, ईसाइयों और दलितों को अपने पक्ष में रहने को मजबूर करने के लिए करते थे। लेकिन शायद 16वीं लोकसभा के लिए होने वाला यह चुनाव इस लिहाज से सबसे अलग होगा कि इसमें ‘भय’ और ‘असुरक्षा’ की भावना की (अगर इसकी धार को कुंद करने के लिए समय रहते सकारात्मक और प्रभावी कदम नहीं उठाए गए तो) सबसे बड़ी भूमिका होगी। यह भावना केवल मुसलमानों या ईसाइयों में ही नहीं होगी, जो लगातार पिछले कुछ वर्षो में होने वाले दंगों के कारण विकसित हो चुकी है, बल्कि इस बार उसका सबसे बड़ा शिकार बहुसंख्यक समाज को बनाने की तैयारी है। उसे मुद्दा बनाने के लिए माहौल बनाया जा रहा है। रोटी, कपड़ा, मकान, किसान, मजदूर, बुनकर, दलित, आदिवासी, जल, जंगल, जमीन जैसे बुनियादी सवालों की बात का शायद नेताओं के भाषणों और स्तम्भकारों के लेखों को श्रृंगारित करने के लिए ही किया जाएगा। निश्चित रूप से बहुसंख्यकों में ‘भय’ और ‘असुरक्षा’ की भावना को परवान चढ़ाने और इसे सबसे बड़े मुद्दे के तौर पर पेश करने का सबसे प्रभावी हथियार होगा ‘आतंकवाद’। लगता है कि संघ और भाजपा ने इसके लिए मन बना लिया है और विभिन्न एजेंसियों का उन्हें अपने पक्ष में माहौल बनाने में पूरा सहयोग भी मिल रहा है।
    जिस तरीके से और जिस अंदाज में ‘आतंकवाद’ के मुद्दे को उछाला जा रहा है उससे साफ है कि मकसद किसी सकारात्मक बहस शुरू करने का नहीं है बल्कि बहुसंख्यक समाज में ‘भय’ और ‘असुरक्षा’ की भावना उत्पन्न करके चुनावी लाभ उठाने का है। अगर यह कहा जाए कि आतंकवाद के नाम पर पिछले दिनों गिरफ्तारियों में जो तेजी आई है उसका इससे सीधा सम्बन्ध है तो गलत न होगा। हो सकता है कि पहली नजर में यह निष्कर्ष किसी आशंका या पूर्वागह का नतीजा मालूम हो लेकिन आतंकवाद के मामले में कई संस्थाओं, प्रतिष्ठानों और राजनैतिक दलों के दृष्टिकोण और व्यवहार इस निष्कर्ष के लिए ठोस आधार उपलब्ध कराते हैं। जाहिर सी बात है जब हम आतंकवाद के नाम पर होने वाली गिरफ्तारियों पर उँगली उठाते हैं तो इसका मतलब होता है खुफिया एवं जाँच एजेसियों को कटघरे में खड़ा करना। आखिर वह किसी राजनैतिक दल या गठबंधन के पक्ष में माहौल बनाने के लिए ऐसा क्यों करेंगे, आतंकवाद एक वास्तविक समस्या है। धमाके हो रहे हैं, बेगुनाह मारे जा रहे हैं फिर तो निश्चित है कि इस अपराध को अंजाम देने वाले भी होंगे। यदि कुछ लोग इस आरोप में पकड़े जा रहे हैं तो इसमें हैरत की क्या बात है, अगर कोई निर्दोष है तो उसके लिए अदालत का दरवाजा खुला हुआ है फिर इसमें किसी आशंका की गुंजाइश कहाँ है, लेकिन पिछले अनुभवों और वर्तमान कार्रवाइयों को जोड़ कर देखें तो हम यकीनी तौर पर इससे अलग सोचने को मजबूर हो जाते हैं।
    सबसे पहले संदेह के लिए पूरी गुंजाइश वहीं पैदा हो जाती है जब आतंकवाद को किसी धर्म या समुदाय से जोड़ कर देखने की कोशिश की जाती है। भारत में इसे इस्लाम और मुसलमानों से जोड़ने की शुरूआत संघ और भाजपा ने की और खुफिया एवं जाँच एजेंसियों तथा मुख्य धारा की मीडिया का उनको पूरा सहयोग मिला। आडवाणी का वह वाक्य सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं होते लेकिन जितने आतंकवादी हैं सब मुसलमान हैं, कौन भूल सकता है। देश का मुसलमान शुरू से ही यह कहता आ रहा था कि आतंकी घटनाएँ एक साजिश हैं जिसको संचालित  कोई और करता है और खुफिया एवं जाँच एजेंसियाँ फँसाती मुसलमानों को हैं। महाराष्ट्र ए.टी.एस. प्रमुख स्व० हेमन्त करकरे ने 2008 में आतंक के उस चेहरे को बेनकाब किया जिसकी आशंका मुसलमान वर्षों पहले से जताता आ रहा था। यह रहस्य खुला तो एक के बाद कई बड़ी आतंकी वारदातों में आतंक के इस नए चेहरे का नाम जुड़ता गया। मालेगाँव 2006 और 2008 के धमाकों में वही हाथ पाए गए जो समझौता एक्सप्रेस, अजमेर शरीफ और मक्का मस्जिद बम धमाकों के अपराध में शामिल थे। मगर करकरे की 26/11 के मुम्बई आतंकी हमलों में हत्या के बाद उनके द्वारा की गई जाँच मालेगाँव 2006 के धमाकों से आगे उस दिशा में न बढ़ने देने के लिए आई.बी. और महाराष्ट्र ए.टी.एस. ने अपनी पूरी ताकत लगा दी और वह उस प्रयास में काफी हद तक सफल भी रहे। उस धमाके में साध्वी प्रज्ञा, कर्नल पुरोहित समेत अभिनव भारत तथा सनातन संस्थान से जुड़े कई आरोपियों की गिरफ्तारी और चार्जशीट दाखिल होने के बाद भी मालेगाँव के बेगुनाह फँसाए गए, मुस्लिम युवकों को जमानत तक पाने में हर रुकावट खड़ी की गई। इसी आरोप में संघ के आदिवासियों में काम करने के जिम्मेदार और गुजरात के डांग जिले में शबरी आश्रम के संस्थापक असीमानंद ने मजिस्ट्रेट के सामने धारा 164 के तहत पहले दिल्ली में और उसके एक महीना बाद राजस्थान की अदालत में अपना अपराध स्वीकार करते हुए मक्का मस्जिद, अजमेर, समझौता एक्सप्रेस, और मालेगाँव 2006 और 2008 के दोनों धमाकों में अपने साथियों की भूमिका का खुलासा कर दिया। तब यह भी पता चला कि उन धमाकों में संघ से जुड़े कई लोग शामिल थे। सुनील जोशी जिसकी 2007 में उसके ही साथियों ने हत्या कर दी थी, संघ का प्रचारक था। सुनील की तरह मध्यप्रदेश के ही रहने वाले लोकेश शर्मा और संदीप डांगे, रामजी कालसांगर भी संघ के प्रचारक थे और इन सभी ने बम बनाने और उसे प्लांट करने में सक्रिय भूमिका निभाई थी। असीमानंद के इकबालिया बयान के अनुसार संघ के बड़े नेता और राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य इन्द्रेश कुमार स्वयं षड्यंत्र रचने और धमाकों की योजना बनाने में प्रत्यक्ष शामिल थे। उन्होंने पैसे और कुछ बम प्लान्टर भी उपलब्ध करवाए थे। इतना ही नहीं संघ के वर्तमान सर संघ चालक को भी न केवल इन गतिविधियों की जानकारी थी बल्कि उनका आर्शीवाद भी प्राप्त था। लेकिन किसी एजेंसी ने इस सिलसिले में किसी बड़े नेता को गिरफ्तार नहीं किया। हद तो यह है कि सूत्रों द्वारा मीडिया में उनको क्लीन चिट दी जाने लगी। कई नेताओं से पूछताछ की भी औपचारिकता एजेंसियों ने पूरी नहीं की। सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि आरोपियों की गिरफ्तारी और उनसे पूछताछ में जाँच एजेंसियाँ इतने बड़े-बड़े मामलों में उनकी संलिप्तता का राज क्यों नहीं उगलवा पाई थीं, बेगुनाह मुसलमानों के गिरफ्तारी के बाद ही कबूलनामें हासिल कर लेने में माहिर जाँचकर्ता अचानक इन आरोपियों के मामले में इतने अक्षम क्यों नजर आने लगे, या फिर यह मान लेना चाहिए कि नीयत का फर्क था,   चूँकि इन तमाम धमाकों में मुसलमानों को गिरफ्तार करके केस को पहले ही हल करने का दावा किया जा चुका था और इससे पहले तक होने वाले हर धमाके को इस्लामी आतंकवाद या जिहादी आतंकवाद की संज्ञा दी जाती रही थी इसलिए आतंक के इस चेहरे के सामने आने के बाद इसे ‘भगवा’ आतंकवाद कहा गया। हालाँकि यह उतना ही गलत है जितना कि आतंकवाद को ‘इस्लामी या जेहादी’ आतंकवाद का नाम देना। आतंकवादी धमाकों में इस नए चेहरे के काले कारनामों की सूची लम्बी होने लगी और 2003 तक की कई घटनाओं में इन्हीं के हाथ होने का खुलासा हुआ। इसमें जालना, पूरना, परभनी, मोडासा और जम्मू की पीर मट्ठा मस्जिद के धमाके भी शामिल थे। यह भी पता चला कि सुनील जोशी ने कई मंदिरों में पाइप बम धमाके की योजना बनाई थी ताकि हिन्दुओं को भड़काया जा सके। इसके लिए उसने अपने एक दोस्त के कारखाने में लोहे के कुछ विशेष पाइप भी बनवाए थे। सुनील की 2007 में हत्या हो जाने के कारण इस दिशा में जाँच आगे नहीं बढ़ सकी थी। या यह कहा जाए कि खुफिया और जाँच एजेंसियों को, जो जाँच को इस दिशा में आगे बढ़ाना नहीं चाहती थीं इसका बहाना मिल गया और बात वहीं खत्म हो गई। 2006 में नांदेड़ में बम बनाते हुए बजरंग दल के लोग मारे गए थे और वहाँ से नकली दाढ़ी, टोपी, और कुर्ता पाजमा बरामद हुआ था जो इसका साफ प्रमाण था कि बम धमाके करके मुसलमानों को फँसाने का काम किया जा रहा है। लेकिन उसकी जाँच सही तरीके से नहीं की गई और मामला रफा-दफा हो गया। कानपुर में बन बनाते समय होने वाली घटना की कहानी भी बिल्कुल नांदेड़ जैसी ही थी। इसमें भी मारे जाने वाले बजरंग दल और विश्व हिन्दू परिषद के लोग थे। लेकिन यहाँ तो विस्फोटकों की मात्रा इतनी अधिक पकड़ी गई थी कि तत्कालीन पुलिस अधीक्षक को कहना पड़ा था कि पूरे कानपुर शहर को उड़ाने के लिए पर्याप्त थी। लेकिन इस मामले की जाँच भी आगे नहीं बढ़ी और फाइनल रिपोर्ट लगा कर मामला समाप्त कर दिया गया। गोवा में सनातन संस्थान के सदस्यों द्वारा स्कूटर पर ले जाया जाने वाला बम रास्ते में ही फट गया, मामला थोड़े समय के लिए मीडिया में आया और उसका अंजाम नांदेड़ और कानपुर जैसा ही हुआ। कितने ही स्थानों पर बम बनाते या ले जाते हुए होने वाले धमाकों को पटाखों की आड़ में छुपाया गया। यह सब सम्भव नहीं था यदि खुफिया और जाँच एजेंसियाँ ईमानदारी से काम करतीं और कोई कारण नही था कि इतने सघन अभियान के बाद अब तक भारत से आतंकवाद की जड़ें उखड़ न गई होतीं चाहे उसका नाम और रंग कुछ भी होता। जहाँ एक तरफ खुफिया और जाँच एजेंसियाँ इन आतंकवादियों को संरक्षण दे रही थी वहीं बेगुनाह मुस्लिम नौजवानों को उन्हीं धमाकों के आरोप में पकड़ रही थी और उनके खिलाफ सबूत गढ़ कर उनका जीवन नष्ट कर रही थीं और यातनाएँ देकर अपराध स्वीकार करवा रही थीं। इन सभी मामलों में फर्जी फँसाए गए मुस्लिम आरोपियों के मामले में पुलिस के पास (उसके  अनुसार) सबूत भी थे, बरामद किए गए बम और नक्शे भी थे और सरकारी गवाह भी थे। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि सबूत कैसे बनाए जाते हैं और कहानी कैसे गढ़ी जाती है। खुफिया और जाँच एजेंसियों के अहलकार किस तरह से मुसलमानों को आतंकवादी बना कर पूरे समुदाय को बदनाम करने का काम करते थे और उसके समर्थन में झूठे सबूत गढ़ते थे उसका और ठोस सबूत मिलता है गुजरात के इनकाउंटरों से। विस्तार में जाए बिना इतना काफी होगा कि इशरत जहाँ, सोहराबुद्दीन, सादिक जमाल मेहतर और तुलसी प्रजापति फर्जी मुडभेड़ मामलों में कई बड़े पुलिस अधिकारी जेल में हैं। इशरत जहाँ केस में आई.बी. के स्पेशल डायरेक्टर राजेन्द्र कुमार और तीन अन्य आई.बी. अधिकारियों के खिलाफ चार्जशीट तक दाखिल कर दी है। यह तो मात्र वह मामले हैं जो संयोग से खुल गए हैं। देश में इतने संवेदनशील मुद्दे पर इतना बड़ा फर्जीवाड़ा होता रहा, मुसलमान फँसाए जाते रहे जब उसका खुलासा हो गया तो अन्य वारदातों की पुनर्विवेचना के लिए सरकार और एजेंसियों को खुद पहल करनी चाहिए थी लेकिन इसकी बार बार माँग के बावजूद कोई कदम न उठाया जाना यह साबित करता है कि सरकार ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहती जिससे उन चेहरों को फिर किसी आतंकवादी घटना से जुड़ा हुआ पाए जाने का रहस्य खुल जाने की सम्भावना मात्र भी हो। इन खुलासों के बाद से जितनी भी आतंकवादी वारदातें हुई हैं उनमें जब भी कभी ऐसी सम्भावना पैदा हुई है उसे तुरन्त खारिज किया गया है और जल्दबाजी में मुसलमान नौजवानों की गिरफ्तारियाँ हई हैं। पुणे जर्मन बेकरी धमाकें के मामले में हिमाचल बेग की गिरफ्तारी की बात हो या जंगली महाराज रोड धमाकों के दयानंद पाटिल में थैले में फटने वाले बम के बाद उसे मामूली चोट बता कर क्लीन चिट देने की बात, सब एक ही रणनीति की कड़ी मालूम होती हैं। 
धीरे-धीरे फिर वही वातावरण बनाने का प्रयास लगातार महसूस होता है जो आतंकवाद के इस नए चेहरे के बेनकाब होने से पहले था। खुफिया और जाँच एजेंसियाँ मुख्य धारा की मीडिया के सहारे इसके लिए आधार 
उपलब्ध करवाती हैं उसके बाद में सामाजिक और राजनैतिक स्तर पर माहौल बनाने का बेड़ा संघ और भाजपा तथा कुछ और संगठनों और दलों का होता है। लेकिन बीच-बीच में अदालतों के फैसले इस लय को तोड़ देते हैं। हिमायत बेग को जर्मन बेकरी का मुख्य अभियुक्त बनाया गया था और जिसको निचली अदालत से गढ़े हुए सबूतों के आधार पर फाँसी की सजा भी हो गई थी अब बेगुनाह साबित हो गया। भाजपा और संघ को आतंकवाद के नाम पर राजनैतिक लाभ उठाने में अदालती फैसलों के कारण सबसे बड़ा धक्का अभी हाल ही में उत्तर-प्रदेश में लगा। जब कानपूर के वासिफ हैदर को अदालत ने उन सभी 9 आरोपों से बरी कर दिया जो एस.टी.एफ. ने गढ़े थे। बिजनौर के नासिर को भी अदालत ने बरी किया जिसे ऋषीकेश से एस.टी.एफ. ने उठाया था और लखनऊ से आर.डी.एक्स. के साथ गिरफ्तार दिखाया था। सबसे बड़ी बात यह कि उसकी बेगुनाही की गवाही ऋषीकेश के उस हिन्दू स्वामी ने अपने खर्च से अदालत में हाजिर हो कर दी थी जो उसके वहाँ से उठाए जाने का प्रत्यक्षदर्शी था। अदालत ने भी स्वामी के उस कदम की सराहना अपने फैसले में की है। यह घटनाएँ अप्रत्याशित थीं और उत्तर-प्रदेश जैसे राज्य में जहाँ लोकसभा की 80 सीटें हों वहाँ मजबूत प्रदर्शन के बिना दिल्ली दूर ही रह जाएगी। इसका आभास भाजपा को पहले से है, शायद मोदी को बनारस से चुनाव लड़ाने के पीछे संघ की मंशा भी यही है। लेकिन मोदी के विकास (हालाँकि जब गुजरात के विकास की बात होती है उसका एक मतलब 2002 का दंगा भी होता है) का महल गिर चुका है और उसको लेकर किए जाने वाले दावों की हर दिन पोल खुल रही है। ऐसे में उत्तर-प्रदेश सहित देश के अन्य भागों में आतंकवाद का भय दिखा कर यह यकीन दिलाने की कोशिश की जा रही है कि भाजपा ही इस दानव से निजात दिला सकती है। 23 मार्च को राजस्थान में अलग अलग स्थानों से चार मुसलमानों की गिरफ्तारी (उनमें से दो को जामिआ नगर दिल्ली से गिरफ्तार किया गया था) दिखाई गई और बताया गया कि उनका सम्बन्ध इंडियन मुजाहिदीन से है। इसी तरह जिस तहसीन अखतर को बौद्धगया और पटना धमाकों के आरोप में साल भर से ज्यादा समय से पुलिस तलाश कर रही थी जोधपुर से गिरफ्तार कर लिया गया। हैदराबाद के मौलाना अब्दुल कवी जो देवबंद जाने के लिए दिल्ली हवाई अड्डे पर उतरे थे उन्हें गुजरात पुलिस ने वहीं से गिरफ्तार कर लिया। अगले ही दिन गोरखपुर से दो पाकिस्तानियों की गिरफ्तारी दिखाई गई। इससे पहले राजस्थान से गिरफ्तार चार आईएम आतंकियों में भी वकास पाकिस्तानी है जो यहाँ छात्र के तौर पर रह रहा था। इन गिरफ्तारियों में किसका मामला लियाकत अली शाह, हिमायत बेग और मुखतार राजू बंगाली जैसा होगा यह तो बाद में देखा जाएगा लेकिन जो माहौल अभी बनाना है उसके लिए तो आधार मिल ही गया है। लेकिन उत्साह में पाक नागरिकों को भी इंडियन मुजाहिदीन का आतंकी बताना हास्यास्पद और संदेहास्पद नहीं लगता।  मगर माहौल तो इंडियन मुजाहिदीन ही से बनेगा इस लिए यह मजबूरी भी थी कि इनको लश्कर या जैश के साथ जोड़ने के बजाए आई.एम. का आतंकी बताया जाए।  
    चूँकि मोदी चुनाव वाराणसी से लड़ रहे हैं इस लिए गिरफ्तारियों का कनेक्शन वहाँ तक न पहुँचे तो बात अधूरी रह जाती है। पुलिस और खुफिया एजेंसियों के सूत्रों के हवाले से जो खबरें अखबारों में छपी हैं उनमें आजमगढ़ के डाक्टर शहनवाज और मिर्जा शादाब के बारे में कहा गया है कि उत्तर भारत में आई.एम. ने आतंकी हमले की कमान इन दोनों को सौंपी है। यह बात पकड़े गए कथित आतंकवादियों ने पूछताछ में बताई है। उन्होंने यह भी खुलासा किया है कि उत्तर-प्रदेश में आई.एम. के 150 स्लीपिंग माड्यूल्स हैं जिनका इस्तेमाल हमलों के लिए किया जा सकता है। शायद यह बताने की जरूरत नहीं कि पूछताछ में यह भी पता चला कि हमले मोदी और उनकी रैलियों पर किए जाएँगे। आजमगढ़ से वाराणसी की दूरी मुश्किल से 50-60 किलोमीटर है। इस लिजाज से आजमगढ़ माड्यूल ही इस पटकथा में सबसे फिट बैठता है और पिछले कुछ समय से मीडिया में इसी हवाले से चर्चा में रहने के कारण सबसे ज्यादा प्रभावी भी साबित हो सकता है। इसी तरह का माहौल जदयू से भाजपा के रिश्ते टूटने के बाद बिहार में भी बनाया गया था।
    यहाँ यह प्रश्न दिमाग में उठना स्वाभाविक है कि खुफिया और जाँच एजेंसियों को ऐसा करने की जरूरत ही क्यों है और उसके लिए भाजपा के ही हक में माहौल बनाने का क्या औचित्य है, तो इस सवाल का जवाब अगर सवाल ही से दिया जाए तो यह पूछा जा सकता है कि जिन बम धमाकों में असीमानंद और प्रज्ञा एंड कंपनी का हाथ था उसमें बेकसूर मुसलमानों को फँसाने के पीछे क्या राज हो सकता है, या इशरत जहाँ को पकड़ कर हत्या कर दी जाती है और उसे लशकर का आतंकी बताने के लिए ए.के. 47 दिखाई जाती है तो इसके पीछे क्या रहस्य हो सकता है, क्या यह एक व्यक्ति के दिमाग की खराबी कह कर टालने योग्य बात है। नहीं यह मामला कुछ और है। खुफिया एजेंसियों को असीमित अधिकार चाहिए और साथ ही किसी प्रकार की जवाबदेही भी नहीं रहे उसके लिए लोगों में भय और असुरक्षा का भाव उत्पन्न होना आवश्यक है। भाजपा को देश की सत्ता चाहिए ऐेसे में भय और असुरक्षा का हथियार बहुत प्रभावी हो सकता है मगर इसके लिए उसे मुसलमानों से जोड़ना जरूरी है। इसलिए यदि कोई वास्तविक शत्रु न हो तो काल्पनिक शत्रु पैदा करना उसके लिए राजनैतिक मजबूरी है। धमाकों के लिए माहौल बनाने से लेकर जरूरत पड़ने पर उसे अंजाम देने तक का इंतेजाम संघ के पास है, और उसका आरोप उस काल्पनिक शत्रु के सिर थोपने की कुंजी खुफिया और जाँच एजेंसियों के पास। यदि दोनों अपने अपने हिस्से की जिम्मेदारी का निर्वाह सही तरीके से करते हैं तो लक्ष्य को आसान बना सकते हैं। जब जनता इसको स्वीकार कर लेगी तो फासीवाद में उसे अपने लिए रक्षक दिखाई देने लगेगा और शायद यह मान लिया जाएगा कि वह ‘सामूहिक चेतना’ अब जनता में भी वास्तव में पैदा हो गई है जिसको संतुष्ट करने के लिए अफजल गुरू को फाँसी पर चढ़ाया गया था।  
.......सोचिए ...... समझिए.... वोट जरूर कीजिए...

शुक्रवार, 3 जून 2011

Alexei Shirov with his third wife's first wedding anniversary on 26 June, 2011!

Shirov is accompanied in León by his third wife WIM Olga Dolgova. It will be their first wedding anniversary on 26 June!

Shirov and Olga.jpg

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

शत्रु और मित्र

भय क्या है? शत्रु कौन है? इसका प्रेम से क्या संबन्ध है? यह एक उदाहरण से समझा जा सकता है। अमावस की अंधेरी रात्रि थी। एक व्यक्ति किसी की हत्या करने के लिए उसके घर में घुसा। चारों ओर कोई भी नहीं था, लेकिन उसके भीतर बहुत भय था। सब ओर सन्नाटा था, किंतु उसके भीतर बहुत कोलाहल और अशांति थी। वह भयभीत था। उसने कांपते हाथों से द्वार खोला। उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि द्वार भीतर से बंद नहीं था। बस अटका ही था। लेकिन यह क्या? द्वार खोलते ही उसने देखा कि एक मजबूत और खूंखार आदमी बंदूक लिए सामने खड़ा है। संभवत: पहरेदार था। लौटने का कोई उपाय नहीं। मृत्यु सामने थी। विचार का भी तो समय नहीं था। आत्मरक्षा के लिए उसने गोली दाग दी। एक क्षण में ही सब हो गया। गोली की आवाज से सारा भवन गूंज उठा और गोली से कोई चीज चूर-चूर होकर बिखर गई।

यह क्या? गोली चलाने वाला व्यक्ति हैरान रह गया। सामने तो कोई भी नहीं था। गोली का धुआं था और चूर-चूर हो गया एक दर्पण था।

हमारे जीवन में भी यही होता हुआ दिखाई पड़ता है। आत्मरक्षा के खयाल में हम दर्पणों से ही जूझ पड़ते हैं। भय हमारे भीतर है, इसलिए बाहर शत्रु दिखाई पड़ने लगते हैं। मृत्यु हमारे भीतर है, इसलिए बाहर मारने वाला दिखाई पड़ने लगता है। सवाल यह है कि क्या दर्पणों के फोड़ने से शत्रु समाप्त हो सकते हैं? शत्रु मित्रता में समाप्त होता है। प्रेम के अतिरिक्त और सब पराजय है।

ओशो


गुरुवार, 27 जनवरी 2011

कंपनी बदलने का विकल्प

मोबाइल फोन के उपभोक्ताओं को अपना नंबर बदले बगैर ही सर्विस प्रोवाइडर बदलने की आजादी तो मिल गई है, लेकिन एक बड़ा सवाल यह है कि क्या इसमें वे बेहतर सुविधाएं प्राप्त कर सकेंगे। आज मोबाइल मार्केट में बडे़-बडे़ प्लेयर हैं और सभी उपभोक्ताओं के समक्ष एक-दूसरे बढ़कर लुभावने प्रस्ताव रख रहे हैं। मोबाइल नंबर पोर्टेबिलिटी (एमएनपी) लागू होने के बाद उपभोक्ताओं के मन एक बड़ी दुविधा पैदा हो गई है कि वे अपने मौजूदा प्रोवाइडर के प्रति वफादार रहें या फिर किसी नए प्रोवाइडर को अपनाएं। यह बदलाव उपभोक्ता के लिए आर्थिक दृष्टि से भारी भी पड़ सकता है क्योंकि वह नई कंपनी का जो भी प्लान चुनेगा, वह जरूरी नहीं कि उसके मौजूदा बिल के समकक्ष ही हो। मोबाइल पोर्टेबिलिटी एक बड़ी तकनीकी सुविधा जरूर है। सेल्युलर कंपनियों के कामकाज से बहुत से उपभोक्ता असंतुष्ट हैं। कभी आपका फोन आउट ऑफ रीच होता है तो कभी किसी इमारत में दाखिल होते ही फोन के सिगनल गायब हो जाते हैं। बिलिंग और कस्टमर केयर के मामले में भी अकसर शिकायतें आती रहती हैं। एसएमएस जैसी बुनियादी सुविधा में भी इन कंपनियों का रिकार्ड बहुत अच्छा नहीं है। ट्राई के डंडे के बावजूद कंपनियां अपने कामकाज में पारदर्शिता कायम रखने में विफल रही हैं। अब नंबर पोर्टेबिलिटी की आड़ में इन कंपनियों को अपना बिजनेस चमकाने का नया अवसर मिल गया है। एमएनपी का प्रचलन कुछ देशों में पहले से हो रहा है। भारत में पिछले साल इसे हरियाणा में लागू किया गया था। वहां करीब एक लाख मोबाइल उपभोक्ताओं ने अपने ऑपरेटर बदल लिए हैं। सिर्फ दो-ढाई महीने के भीतर इतनी बड़ी तादाद में ऑपरेटरों को बदलने का अर्थ साफ है कि उपभोक्ता उनकी सेवाओं से संतुष्ट नहीं हैं। मोबाइल मार्केट पर एमएनपी का कितना असर पड़ता है, इसका अंदाजा अगले छह महीनों में लग जाएगा। विभिन्न ऑपरेटरों के बीच इस बात की होड़ लगेगी कि वे अपने मौजूदा ग्राहकों को छिनने से कैसे रोकें और नए ग्राहक कैसे बनाएं। कुछ मामलों में इससे उपभोक्ताओं को फायदा भी हो सकती है क्योंकि विभिन्न नेटवर्क अपनी सेवाओं की खामियों को दूर करने के लिए विवश होंगे। एक बड़ा सवाल यह है कि उपभोक्ता के लिए एमएनपी कितनी लाभप्रद होगी। वह सिर्फ बेहतर सुविधा और बेहतर कस्टमर केयर प्राप्त करने की दृष्टि से ही अपना ऑपरेटर बदलने के बारे में सोचेगा। वह एक बेहतर टैरिफ पैकेज की भी अपेक्षा करेगा। लेकिन उसकी ये उम्मीदें तभी पूरी हो पाएंगी, जब ऑपरेटरों को लगेगा कि उनके उपभोक्ताओं की संख्या बढ़ रही है। सर्वेक्षणों से पता चलता है कि बाजार पर एमएनपी का अधिक प्रभाव नहीं पड़ेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि कंपनियां जितने नए उपभोक्ता हासिल करेंगी, लगभग उतने ही उनके हाथ से छिन जाएंगे। ऐसी स्थिति में वे अपनी सर्विस या कस्टमर केयर में कोई बड़ा भारी परिवर्तन नहीं कर पाएंगी। कोई भी उपभोक्ता सुविधाओं में सुधार की अपेक्षा से ही अपने ऑपरेटर को बदलेगा, लेकिन एक बड़ा प्रश्न यह है कि उसके लिए वास्तविक अंतर कितना होगा। ट्राई के सितंबर 2009 के आंकड़ों के मुताबिक उत्तर प्रदेश में कॉल सेटअप (कनेक्शन मिलने) की सफलता की दर सबसे कम 97.26 प्रतिशत थी और मुंबई में सबसे ज्यादा 99.99 फीसदी। इसी तरह पूरे देश में कॉल ड्राप की दर करीब तीन प्रतिशत थी। राजस्थान में यह दर सबसे कम 1.9 प्रतिशत थी। अच्छी आवाज के साथ कनेक्टिविटी के मामले में किसी भी ऑपरेटर का रिकॉर्ड शत-प्रतिशत नहीं रहा है। यह बात भी सभी जानते हैं कि कंपनियों के टैरिफ इतने कम हैं कि उपभोक्ता के समक्ष और कम टैरिफ के विकल्प की संभावना बहुत कम है।

बुधवार, 19 जनवरी 2011

माँ

माँ

माँ रोते हुए बच्चे का खुशनुमा पलना है,
माँ मरूथल में नदी या मीठा सा झरना है,

माँ लोरी है, गीत है, प्यारी सी थाप है,
माँ पूजा की थाली है, मंत्रों का जाप है,

माँ आँखों का सिसकता हुआ किनारा है,
माँ गालों पर पप्पी है, ममता की धारा है,

माँ झुलसते दिलों में कोयल की बोली है,
माँ मेहँदी है, कुमकुम है, सिंदूर है, रोली है,

माँ कलम है, दवात है, स्याही है,
माँ परमात्मा की स्वयं एक गवाही है,

माँ त्याग है, तपस्या है, सेवा है,
माँ फूँक से ठँडा किया हुआ कलेवा है,

माँ अनुष्ठान है, साधना है, जीवन का हवन है,
माँ जिंदगी के मोहल्ले में आत्मा का भवन है,

माँ चूडी वाले हाथों के मजबूत कंधों का नाम है,
माँ काशी है, काबा है और चारों धाम है,

माँ चिंता है, याद है, हिचकी है,
माँ बच्चे की चोट पर सिसकी है,

माँ चुल्हा-धुँआ-रोटी और हाथों का छाला है,
माँ ज़िंदगी की कड़वाहट में अमृत का प्याला है,

माँ पृथ्वी है, जगत है, धूरी है,
माँ बिना इस सृष्टि की कल्पना अधूरी है,

तो माँ की ये कथा अनादि है,
ये अध्याय नही है
और माँ का जीवन में कोई पर्याय नहीं है,


तो माँ का महत्व दुनिया में कम हो नहीं सकता,
और माँ जैसा दुनिया में कुछ हो नहीं सकता,

और माँ जैसा दुनिया में कुछ हो नहीं सकता,
तो मैं कला की ये पंक्तियाँ माँ के नाम करता हूँ,
और दुनिया की सभी माताओं को प्रणाम करता हूँ।